21वीं सदी के संथाल Adivasi: क्या सच, क्या झूठ
संथाल झारखंड का सबसे बड़ी आबादी वाला Adivasi समुदाय है। संथाल समुदाय के लोग वैज्ञानिक सोच के साथ संविधान को अपना आधार मानते हैं। वैज्ञानिक सोच और तकनीकी व्यवस्था ने संथाल Adivasi महिलाओं के नजरिए को बदला है। बाहर निकल कर हर चुनौतियों को समाना करते हैं। शहर में रह रहे संथाल समुदाय के लोग उच्च शिक्षा लेकर अपनी बात रखने के साथ ही, लैगिक समानता के लिए बदलवा की ओर बढ़ रहे हैं। वहीं गांव की महिलाएं अब भी परम्परागत व्यवस्था के अधिन है। उन्हें घर, खेत और सेवा करने के लिए जो तैयार किया गया है। वो उसी के अनुरूप चलती है। शहर और गांव में संविधान को जानने वाली महिलाएं परम्परागत हक की बात को अपने ही नजरिया से देखती समझती हैं। चलिए आज महसूस करें की बदलते दौर में संथाल Adivasi महिलाएं अपने समाज को कैसे जज कर रही हैं। संविधान, वैज्ञानिक चेतना की समझ रखने वाली औरतें।
क्या है Adivasi संथाल महिला की राय
असिस्टेंट प्रोफेसर रजनी मुर्मू संथाल Adivasi समाज से आती हैं। शिक्षित और संथाल समाज की एक अंग है। उन्होंने लैगिंक समानत पर चर्चा करते हुए बताया कि “संथाल आदिवासियों के सार्वजनिक जीवन में समान अधिकार नहीं है। गांव की बात करें तो पंच में महिलाओं का प्रतिनिधि नहीं होता है। ऐसे में महिलाओं के पीड़ा, महिलाओं की समस्या का समाधान के रास्ते बंद है। जहाँ मनुष्य होता है वहाँ व्यवस्था में समस्या भी होती हैं। उसके समाधान के लिए पंच के माध्यम यानी सामूहिकता के साथ आसान रास्ते खोजे जाते हैं। इस पंच वाली व्यवस्था में संथाल Adivasi महिलाओं का प्रतिनिधि ही नहीं होता है, तो समाधान भी ही नहीं हो सकता।”
बढ़ रहा है Adivasi समाज में असमानता का भाव
हम रूढिवादी व्यवस्था वाली सोच के साथ जीवन जी रहें हैं। संविधान और वैज्ञानिक चेतना से लैस भी हो रहें हैं लेकिन औरतों के लिए अपने परम्परागत व्यवस्था पर हम बदलाव सोच नहीं सकते। आज भी घरों में बेटा-बेटी के बीच फर्क है। बेटियां घर के काम के साथ शिक्षा भी ले रहीं हैं। बेटे घर के काम से मुक्त हैं। हमारे यहाँ ऐसी ऐसी व्यवस्था बनी है जो औरतों को कमजोर करता है जैसे पति के बडे़ भाई, बहन के पति के सामने समान्तर में बैठ नहीं सकतें। वो कुर्सी या खाट पर बैठता है तो आपको जमीन पर बैठना होगा। ये घर के अंदर औरतों की स्थिति को दर्शाती है। समाज में बेटा ना होना, दुसरे विवाह का कारण भी बनता है, यदि उससें भी बेटा नहीं हुआ तो जाहेरथान यानि धार्मिक स्थल पर धुसने नहीं दिया जाता है जैसे रूढिवादी व्यवस्था है।
इससे औरतों के मन को छोटा होता है। इसकी वजह से औरतों को गांव, घर में दरकिनार करने की स्थिति पैदा होती है। रजनी जैसी औरतें इसे अवसर में बदल कर आगे बढ़ती हैं। संविधान के अधिकार के तहत अपने शिक्षा को हथियार बना कर शिक्षित होकर गैरबराबरी अपनी पहचान तलाश करती हैं।
बढ़ रहा है हत्या का प्रचलन
जब लिखित संविधान की ओर बढ़ते हैं तब समाज के उन असमानता वाली व्यवस्था के कमीयां को बताना पड़ता है।
संथाल समाज में परिवार के वंशजों में महिलाओं का नाम बहुत कम लोग जानते है क्यों? जबकि मर्द का नाम खतियान पर दर्ज होता है। औरत का नहीं है? पैतृक सम्पत्ति पर हक तो दुर नाम तक दर्ज होने नहीं दिया गया। ऐसे में हम हमारे औरतों के वंशजो को नहीं जान पाते हैं।
कुछ परिवार में अब सरकार के मांग के आधार पर बेटियां का नाम दर्ज हो रहा है। कई बार इस हक को मांगने में हत्या तक की घटना हो जाती है। हत्या करने वाले अपना ही समाज होता है। समाज के बनाए गये नियम में महिलाओं की भागीदारी गौण है। इस लिए हर चीजो में असमानता दिखती है।
इस लम्बे गैप को भरा जा सकता है घर से इस बदलाव के लिए पहल होना चाहिए इसलिए कि संविधान के अधिन यदि आप चल रहें तब संविधान के अनुरूप निर्णय प्रक्रियाओं लेकर समान भागीदारी के लिए पहल होना चाहिए।
सुनिए आदिवासी महिलाओं की राय आदिवासी समाज पर..
https://www.facebook.com/sakhua.tribalwomen/videos/997179080876112/
अलोका कुजूर झारखंड की जानी मानी एक्टिविस्ट हैं। जो लगातार आदिवासी एवं श्रमिक वर्ग के अधिकारों के लिए आवाज उठाती हैं। इसके अलावा एक बेहतरीन कवयित्री भी हैं। पत्थर खदान में औरतों, महिला बिड़ी कर्मी, पंचायत राज पर गहन शोध किया है। आन्दोलन, लेखन और जन-आन्दोलनों के साथ गहरा जुड़ाव है।